भारत में पौराणिक काल से चले आ रहे कुम्भ मेले का सामाजिक-सांस्कृतिक, पौराणिक व आध्यात्मिक महत्व सर्वविदित ही है। जहां नदी संगम आदि स्थानों पर अस्थाई नगर बस जाते हैं। ज्योतिष की दृष्टि से भी यह मेला अपना विशिष्ट स्थान रखता है। मेले का निर्धारण का आधार ज्योतिषीय गणना ही होती है। सूर्य, चंद्रमा, शनि और बृहस्पति ज्योतिष शास्त्र में बहुत ही मुख्य माने गए हैं। कुम्भ मेले में भी इन ग्रहों की अहमियत ज्यादा हो जाती है। इन्हीं ग्रह-नक्षत्रों की विशेष स्थितियों के आधार पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। स्कंदपुराण में इन ग्रहों के योगदान का उल्लेख मिलता है। पुराण के अनुसार जब समुद्र मंथन के पश्चात अमृत कलश यानि सुधा कुम्भ की प्राप्ति हुई तो देवताओं व दैत्यों में उसे लेकर युद्ध छिड़ गया। 12 दिनों तक चले युद्ध में 12 स्थानों पर कुम्भ से अमृत की बूंदें छलकी जिनमें चार स्थान भारत भूमि पर स्थित है, उनमें हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक हैं। बाकि स्थानों के बारे में पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वर्गलोक में माने जाते हैं। दैत्यों से अमृत की रक्षा करने में सूर्य, चंद्रमा, शनि व गुरु ग्रहों की भूमिका विशेष मानी गई है। स्कंदपुराण में लिखा है-
चन्द्र: प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ। दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे। सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।
अर्थात् चंद्रमा ने अमृत छलकने से, सूर्य ने अमृत कलश टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्र के पुत्र जयंत से इस कलश को सुरक्षित रखा।
कुंभ मेला तभी लगता है जब ये ग्रह विशेष स्थान में होते हैं। इसमें देव गुरु बृहस्पति वृषभ राशि में होते हैं। सूर्य व चंद्रमा मकर राशि में होते हैं। माघ मास की अमावस्या यानि मौनी अमावस्या की स्थिति को देखकर भी कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। ग्रह ऐसे योग बनाते हैं जो कि स्नान दान व मनुष्य मात्र के कल्याण के लिये बहुत ही पुण्य फलदायी होता है। जिन-जिन स्थानों में कुम्भ मेले का आयोजन होता है उन स्थानों पर यह योग आमतौर पर 12वें साल में बनता है। कभी कभी 11वें साल भी ऐसे योग बन जाते हैं। सूर्य और चंद्रमा की स्थिति तो हर स्थान पर हर साल बनती है। इसलिये हर वर्ष वार्षिक कुंभ मेले का भी आयोजन होता है। उज्जैन और नासिक में जहां यह सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है वहीं हरिद्वार व प्रयागराज में कुंभ कहा जाता है।
इसी समय ग्रह बनाते हैं शुभ योग- गुरु वृषभ राशि में होते हैं, जो कि शुक्र की राशि है तब प्रयागराज में पूर्ण कुंभ मेला लगता है । शुक्र दैत्यों के गुरु के थे जिन्हें ज्योतिषशास्त्र में ऐश्वर्य भोग व प्रेम में वृद्धि करने वाला ग्रह माना जाता है। इनकी राशि में बृहस्पति, जो ज्ञान के कारक ग्रह हैं, के आने से मनुष्य के विचार सात्विक हो जाते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य की प्रवृति तमोगुणी, रजोगुणी व सतोगुणी मानी जाती है। रज व तम राजसी व तामसी प्रवृति के प्रतीक हैं जो कि मनुष्य मात्र के आध्यात्मिक विकास में बाधक माने जाते हैं। जब मनुष्य की प्रवृति सात्विक होती है तभी वह अपना आध्यात्मिक विकास कर पाता है। वृषभ राशि में गुरु ऐसा करने में सहायक होते हैं। वहीं सूर्य व चंद्रमा भी मकर राशि में होने पर ज्ञान व भक्ति की भावना का विकास करते हैं। गंगा, यमुना, गोदावरी, शिप्रा आदि पवित्र नदियों के समीप रहकर तो व्यक्ति की आस्था और भी बढ़ जाती है। ऐसे में अपने अल्प प्रयासों से ही श्रद्धालु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। इन विशेष योगों के निर्माण के कारण ही इस समय अंतराल में जो भी दान-पुण्य, स्नान, और सात्विक कार्यों का फलाफल भी कई गुणा बढ़कर प्राप्त होने वाला बन जाता है। जिसके कारण पौराणिक कला की प्रथा आज भी भारत जैसे धार्मिक प्रधानता वाले देश में यथावत जारी है।
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