प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन साधना-उपासना, नित्य कर्म-पूजा-पाठ को जीवन की चर्या का अंग बनाना चाहिए। और ये तब और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है जब भागदौड़ भरी जिंदगी में भौतिकता की चकाचौंध में घिरा रहता है। ऐसे में साधना के मार्ग से ही मनुष्य आने वाली समस्याओं का सामना कर सकता है। यदि हम जीवन में किसी प्रयास के प्रति गंभीर हैं, तो उसके लिए हमें दृढ निश्चयी तथा नियमित होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप, यदि हम स्वस्थ रहना चाहते हैं तो हमें नियमित रूप से व्यायाम करना पडेगा। उसी प्रकार यदि हमें चिरकालीन आनंद प्राप्त करना है तो हमें प्रतिदिन साधना-उपासना, पूजा-पाठ करना पड़ेगा।
प्रत्येक मनुष्य जीवन में ऊंचाइयां प्राप्त करना चाहता है, लेकिन सभी उस तक पहुंच नहीं पाते। इसके पीछे कारण मात्र एक होता है कि जो भी कर्म किया जा रहा है उसके प्रति पूर्णरूपेण समर्पण का भाव नहीं होता। संशय बना रहता है कि होगा या नहीं। तब तक कार्य नहीं होगा। भागदौड़ भरी जिंदगी में प्रत्येक मनुष्य Instant Result की आकांक्षा के साथ कार्य को अंजाम देने का प्रयास करता है। जब ऐसा नहीं होता, तो वे Patience खो बैठते हैं एवं अभ्यास करना भी बंद कर देते है। यह बात प्रत्येक क्षेत्र में लागू होती है चाहे वे भौतिक जगत के कार्य हों या फिर आध्यात्मिक जगत के। बिना पूर्ण श्रद्धा-विश्वास और धैर्य के किए गए प्रत्येक कार्य में असफलता ही सामने नजर आएगी। एक बार असफलता आने पर मनुष्य के मन से श्रद्धा, विश्वास और धैर्य का स्थान कम होता जाता है। दूसरे शब्दों में मनुष्य मानसिक तनावों से घिरा नजर आने लगता है। मानसिक तनाव स्नायु तंत्र को तो भीतरी तौर पर क्षति पहुंचाते ही हैं और बाहरी रूप में दूसरों के लिए व्यवहारगत समस्याएं उत्पन्न करने वाला होने लगता है। एक कहावत है-
धीरे-धीरे रे बन्ना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतुु आए फल होय।
उपासना का मतलब समर्पण है। आपको भी अगर शक्तिशाली या महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनना है, बड़ा काम करना है, तो आपको भी बड़े आदमी के साथ, महान गुरु के साथ चिपकना होगा। बूँद जब अपनी हस्ती समुद्र में गिराती है तो वह समुद्र बन जाती है। यह समर्पण है। अपनी हस्ती को समाप्त करना ही समर्पण है। अगर बूँद अपनी हस्ती न समाप्त करे तो वह बूँद ही बनी रहेगी। वह समुद्र नहीं हो सकती है। अध्यात्म में यही भगवान को समर्पण करना उपासना कहलाती है।
मात्र उत्सुकता भौतिक या आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति प्रदान करने में सहायक नहीं होती। स्वयं का आत्म-निरीक्षण, अपने विचारों का विश्लेषण, मन का कौतुहल, जिज्ञासा, प्रार्थना, जप, तप एवं ध्यान द्वारा उत्सुकता को मुक्ति की सच्ची पिपासा में बदलने का प्रयास ही लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर कर सकता है। केवल उत्तम उद्देश्यों से काम नहीं चलेगा। उनके साथ पर्याप्त प्रयास भी होना चाहिए। साथ ही काम, क्रोध, लोभ, अहंकार एवं स्वार्थपरता से स्वयं को सुरक्षित रखना होगा। ये बात आध्यात्मिक जगत में जाने वालों के लिए और भी अधिक महत्व की हो जाती है। सफलता की सीढिय़ां चढऩे के लिए पूर्णरूपेण संकल्पबद्ध होना अति आवश्यक होता है तभी कर्म को लक्ष्य तक पहुंचाने में सफल हो सकते हैं। इसको परखने के लिए छोटे-छोटे कार्यों को संकल्प के धागे में पिरोकर पूरा कीजिये। उनमें सफलता मिलने पर बड़े कार्यों को संकल्प की माला में पिरो लीजिये। सफलता इंतजार करती प्रतीत होगी।
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