मानव-जीवन के दो स्तर हैं एक बाह्य दूसरा आन्तरिक, एक भौतिक दूसरा आत्मिक। इनमें से जिसकी प्रधानता होती है उसी के अनुसार जीवन का स्वरूप बनता है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में मानव दोनों में सामंजस्य नहीं बैठा पाता, फलस्वरूप भौतिकता प्रधान वस्तुओं की ओर बिना लक्ष्य के खींचा चला जाता है। गृहस्थ को आजीविका उपार्जन के लिए उद्योग करना पड़ता है। यह सत्य है, किन्तु साथ ही अगर आत्मिक सुख के लिए आध्यात्मिकता से भी थोड़ा बहुत सामंजस्य रख पाए तो जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल सकती है। इसलिए व्यस्तता होने के बाद भी अगर पूजा-उपासना, दान-पुण्य और मानव जनकल्याण से जुड़ जाए तो जीवन की आपाधापी में भी आत्मिक सुख की अनुभूति कर सकता है। बाह्य जीवन हर व्यक्ति का भौतिकवादी ही होता हैं। बात भीतरी स्थिति की है। अन्तर इतना ही रहता है कि एक श्रेणी के व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के प्रति भावनाएं रखते हैं, उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं, उनकी प्राप्ति से सुखी और दुखी होते हैं, अपना लक्ष्य इन भौतिक पदार्थों और परिस्थितियों को ही बनाये रहते हैं। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति वे हैं जो भावना को महत्त्व देते हैं, वस्तु को उसका उपकरण मानते हैं। वस्तुओं की सदुपयोगिता की बात सोचते हुए पूजा-साधना और उपासना को भी अपनी कार्य पद्धति का हिस्सा बना कर सम की स्थिति का निर्माण कर भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता से जुड़ कर जीवन लक्ष्य प्राप्ति करते हैं।
अहंकार की तृप्ति के लिए अनावश्यक अपव्यय, फैशन, ठाट-बाट पदवी, मान सम्मान की आकाँक्षा जिसे बनी रहेगी उसे दूसरों का गुलाम बनकर रहना होगा। दूसरे क्या पसन्द करते हैं, दूसरों को प्रभावित कैसे किया जा सकता है यही सोचने में उसे अपनी शक्ति और सामथ्र्य का बहुत बड़ा अंश खर्च कर देना पड़ेगा। किन्तु जिसने सादगी को ही सौंदर्य और सज्जनता का प्रतीक माना है वह मितव्ययिता बरतते हुए सीधे-साधे ढंग का कम खर्चीला जीवन बना लेगा और सदा सुखी रहेगा।
आत्मा, परमात्मा का एक अंश मात्र है। उसे जो कुछ शक्ति और प्रतिभा प्राप्त है ईश्वर की ही विभूति है। जिसमें वह विभूति जितनी कम पड़ जाती है वह उतना ही दीन-हीन बना रहता है। शक्ति का स्रोत जिस उद्गम से प्रवाहित होता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेने से सामान्य जीव को भी शक्ति का पुँज बनने में देर नहीं लगती। बिजलीघर के साथ जुड़े हुए पतले-पतले तार अपने भीतर इतनी शक्ति धारण कर लेते हैं कि उनके द्वारा सैकड़ों घोड़ों की शक्ति वाली मशीनें धड़-धड़ाती हुई चलने लगती हैं। उनको स्पर्श करने वाले बल्ब अन्धेरी रात को दिन जैसा प्रकाशवान बना देते हैं। बिजली घर से जब तक सम्बन्ध है तभी तक उन तारों में यह विभूति रहती है कि उनके स्पर्श से चमत्कार उत्पन्न हो सके जब वह सम्बन्ध कट जाता है, तारों को बिजली घर के विद्युत भण्डार की धारा का प्रवाह मिलना रुक जाता है तो फिर उनका कोई महत्व नहीं रह जाता। देखने से पहले जैसा लगने पर भी वे न प्रकाश उत्पन्न करते हैं और न मशीनें चला पाते हैं। तार का मूल्य बिजली घर से सम्बन्ध होने के कारण हो तो या, वह टूट गया तो फिर उसकी महत्ता कहाँ स्थिर रह सकती थीं?
आत्मा के द्वारा अनेक लौकिक और पारलौकिक प्रयोजन पूर्ण किये जाते हैं। अनेकों सफलता और समृद्धियों को प्राप्त करने का श्रेय आत्म-बल को ही दिया जा सकता है। आत्म-बल संसार के सब बलों से श्रेष्ठ है। धन-बल, शरीर-बल, बुद्धि-बल, संख्याबल आदि अनेक बलों के द्वारा मनुष्यों को विविध प्रकार की सफलताएँ मिलती हैं पर उन सबके मूल में आत्म-बल की ही प्रधानता रहती है। जीवन की सार्थकता आत्म-बल पर ही निर्भर रहती है। अन्य बल तो छाया मात्र हैं।
आत्मा को जब भी स्थायी बल प्राप्त होता है तब उसे वह उपलब्धि परमात्मा से ही मिली होती है। मोती समुद्र से ही निकलते हैं। उनका उपयोग कहीं भी किसी कार्य के लिए भी किया जा सकता है पर उसकी उत्पत्ति समुद्र के अतिरिक्त और कहीं नहीं होती। इसी प्रकार आत्म-बल का वरदान भी परमात्मा से प्राप्त होता है। अन्धा लाठी के सहारे अपनी मंजिल पार करता हैं। जीव भी इस पाप-ताप के अन्धकार से भरे संसार से जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने की यात्रा ईश्वर का अवलम्बन करके ही पूर्ण कर सकता हैं।
परमात्मा समस्त उच्च शक्तियों और संभावनाओं का केन्द्र है। बिना डोरी के पतंग की तरह जीव निरुद्देश्य दिन काटता रहता है पर जब भगवान के साथ वह अपना सम्बन्ध बना लेता है तो उसे अपने स्वरूप और लक्ष्य का पता चल जाता है। तब मंजिल को पूरी करने का क्रम भी वह जान लेता है और दृढ़तापूर्वक नियत दिशा में चलते हुए उन सब विभूतियों को प्राप्त कर लेता है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए उसे वह सुर दुर्लभ मानव शरीर मिला होता है।
जीव स्वयं तो निर्बल, तुच्छ है। उसे विशालता और महानता परमात्मा के सान्निध्य से ही उपलब्ध होती है। इसके लिए जो प्रयत्न करता है वही बुद्धिमान है। दूरदर्शिता की एकमात्र कसौटी यह है कि अपने सुदूर भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए सांसारिक कर्मों को करते हुए ईश्वराभिमुख होकर नित्य पूजा-अर्चना-उपासना को जीवन का नित्य कर्म बनाएं तो लोक-परलोक का लक्ष्य साध सकता है। यानि योग की भाषा में जिसे सम स्थिति कहा है, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हुए गृहस्थ जीवन की नैय्या को पार करता चले। इसलिए जीवन में सामंजस्य तभी संभव हो सकेगा जब व्यक्ति सांसारिक कर्म करते हुए ईश्वर आराधना को भी उसी कर्म का हिस्सा बना पाएगा।
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