11. वेद और तप
तप का अर्थ है तपाना या अग्निपथ से गुजरना।
जैसे भट्टी में गलाने के पश्चात ही स्वर्ण में प्रखरता आती है शुद्धता के उपरांत कैसे भी आकार दिया जा सकता है, इसी प्रकार अपने जीवन को विशेष आकार व आयाम देने की सामर्थ्य तप, श्रम से ही प्राप्त होती है. तपस्वी वह है जिसने अपनी मानवीय दुर्बलताओं या कमजोरियों पर विजय पायी हो । अपनी इंद्रियों का निग्रह करना ही तप है। हम अपनी कर्मेंद्रियों-ज्ञानेंद्रियों पर संयम करें, तभी तपस्वी कहलाने के अधिकारी हैं। उत्तम तप है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है।
हमारे जीवन की सार्थकता श्रम व तप में ही है। किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए जो कर्म हम करते हैं, शरीर व मन की कठिनाइयों की चिंता किये बिना जुटे रहते हैं वही तप है। वेदों में तीन प्रकार के तप का महत्व बताया गया है उसमें भी सात्विक तप को उत्तम कहा गया है। इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जाने वाला राजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर; दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं हो सकता। वन में 10 वर्ष रहना या शरीर को गलाना तप नहीं है यदि आप अपने कार्य को बहुत मन लगाकर श्रद्धा से करते हैं तो वह भी तप ही है।
सात्विक तप-
देह की चिंता न करते हुए जो मनुष्य ईश्वर परम आत्मा की प्राप्ति में साधना में लगा है वह सात्विक तप है। उससे भी ऊपर प्रत्येक प्राणी में स्थित ईश्वर तत्व या आत्मिक अंश को पहचान कर जन सेवा में जिसने अपने को आजीवन समर्पित किया वह जीवन वास्तव में सात्विक तप है। यानि दूसरों की किसी भी रूप में सेवा करना ऐसा है जैसे चन्दन को घिसकर संसार में सुगंध फैलाने जैसा है। सात्विक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह, अहिंसा और भाव संशुद्धि से सिद्ध होता है।
राजसी तप-
धन, कीर्ति, लोकप्रियता, प्रतिष्ठा, राज या अधिकार के लिए जो श्रम व तप है या लाखों प्रयोग करने वाले उस वैज्ञानिक जो सृष्टि की अज्ञात शक्तिओं की खोज कर जन जीवन को आसान बनाये, या अपने लगातार अभ्यास से किसी कार्य में सिद्धि प्राप्त करे वह राजसी तप है। रजस तप वाणी, सत्य और प्रिय भाषण तथा स्वाध्याय से होता है।
तामसिक तप-
द्वेष, ईष्र्या, स्वार्थ या दूसरों को तकलीफ पहुंचा कर, उनका नाश कर या उन्हें पीड़ा दे कर, भ्रष्टाचार में लिप्त हो, पापों में लगन रह कर या अपनी क्षुद्र या निम्न लालसाओं, वासनाओं से ग्रसित हो जो कुकर्म करते समय कष्ट पूर्ण जीवन बिताये वह ही तामसिक तप है। चोरी, दूसरों की चीज हड़पना, बलपूर्वक किसी को वश करना, काला जादू, बलि देना, किसी भी जीव को दु:ख देना या भले व भोले लोगो को भ्रम व कुबुद्धि के रास्ते पर ले जाकर उन्हें लूटने की विद्या तमस तप है और इसका परिणाम अत्यंत भयानक होता है।
तप या तपस्या वास्तव में तभी सम्भव है जब हमारा कोई लक्ष्य, उद्देश्य व ध्येय है जो की सात्विक या रजस हो तो ठीक है पर तामसिक तप घोर अपराध व पाप है।
क्रमश:
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