5 जनवरी को दैव पितृ कार्य शनैश्चरी पौष अमावस्या पर उपवास के साथ पितरों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध व तर्पण करने से जीवन की दैनिंदिन में आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिलने के साथ सुख और शांति का वास होता है। क्योंकि शास्त्रों में पौष महीने को बहुत खास बताया गया है। इस कारण इस माह पडऩे वाले विशेष तिथि-पर्व के मौके पर पूजा-उपासना, दान-पुण्य का महत्व विशेष होने के साथ-साथ उनके फलों में ज्यादा वृद्धि होती है। पौष अमावस्या पर पितरों की शांति के लिए उपवास रखने से ना केवल पितृगण बल्कि ब्रह्मा, इंद्र, सूर्य, अग्नि, वायु, ऋषि, पशु-पक्षी समेत भूत-प्राणी भी तृप्त होकर प्रसन्न होते हैं। इस अमावस्या में पवित्र नदियों में स्नान करने का भी खास महत्व होता है। ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को अत्यंत ही पावन तिथि माना गया है। शास्त्रों के अनुसार अगर अमावस्या के रात आप कुछ खास उपाय करते हैं तो इसका आपके जीवन में बहुत शुभ परिवर्तन होता है। अमावस्या के दिन पूजा-पाठ, दान-पुण्य और उपवास आदि करने से आपके जीवन में खुशियाँ और सुख का आगमन होता है और अमावस्या की रात को उपाय से आपके घर के नकरात्मक उर्जा दूर होती है तथा आपके घर और आपके जीवन में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है। अमावस्या के उपाय से आपके कुंडली के पितृ दोष, ग्रहण दोष, कालसर्प दोष, राहू के दुष्प्रभाव, केतु के दुष्प्रभाव, शनि के दुष्प्रभाव से भी मुक्ति मिलती है। अमावस्या के दिन पीपल के पेड़ का पूजन करना चाहिए। तुलसी के पौधे की परिक्रमा करनी चाहिए।
शनि देव के शनैश्चर: बनने की कथा:-
पुराणों के अनुसार शनि देव का शनैश्चर: नाम कैसे पड़ा, के बारे में आए वृत्तांत के अनुसार एक बार देवासुर संग्राम में असुरों के नायक वृत्तासुर के आगे असहाय देवों को जब ज्ञात हुआ कि यदि महर्षि दधीचि की अस्थियों का अस्त्र (वज्र) बनाकर असुरराज पर प्रहार किया जाएगा तो उसका विनाश तय है तब देवेंद्र स्वयम् महर्षि दधीचि के सम्मुख देह दान करने की याचना लेकर गए। उस समय महर्षि दधीचि की उम्र मात्र 31 वर्ष और उनकी धर्मपत्नी की उम्र 27 वर्ष तथा गोद में नवजात बच्चे की उम्र मात्र 3 वर्ष थी। देवेंद्र इन्द्र की याचना और देवताओं पर आए संकट के निवारण हेतु महर्षि दधीचि देह दान हेतु तैयार हो गए तथा अपने प्राण योगबल से त्याग दिए। देवताओं ने उनकी अस्थियां निकाल कर मांसपिंड को उनकी पत्नी को दाह हेतु दे दिया।
श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयं चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा। जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों (फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।
एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूछा-
नारद- बालक तुम कौन हो?
बालक-यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ।
नारद-तुम्हारे जनक कौन हैं?
बालक-यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।
तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक-मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था?
नारद-तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक-मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था?
नारद-शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी। ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वान कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखें खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया। शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे। अन्तत: ब्रह्मा जी स्वयं पिप्पलाद के सम्मुख आकर शनिदेव को छोडऩे की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए। ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
1-जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा। जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
2-मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अत: जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया। तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया। जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे। अत: तभी से शनि शनै:चरति य: शनैश्चर: अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
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