8. वेद और यज्ञ प्रेरणा
लगातार............
यज्ञीय प्रेरणाएँ
यज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहित है-जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। जिस प्रकार बाल फ्रेम में लगी हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनती सिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाता है कि हमारे जीवन की प्रधान नीति यज्ञ भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए। हम यज्ञ आयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें। हमारा जीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो। गंगा स्नान से जिस प्रकार पवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसी प्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षण मिलता है। यज्ञ की प्रक्रिया को जीवन यज्ञ का एक रिहर्सल कहा जा सकता है। अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्र्रकार हम परमार्थ प्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्य आदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। इस नीति को अपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं। संसार में जितने भी महापुरुष, देवमानव हुए हैं, उन सभी को यही नीति अपनानी पड़ी है। जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढ़ा सकता, उसे जीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता।
यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्त्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है। उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-
1- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रह करके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।
2- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है। जो पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्ति अपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूरा करें।
3- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पडऩे पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें।
4- अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती। उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए।
5- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मु_ी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।
अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्त्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्च में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है। यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं। प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है।
यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है। सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है। गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है। जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी।
नगर, ग्राम अथवा क्षेत्र की जनता को धर्म प्रयोजनों के लिए एकत्रित करने के लिए जगह-जगह पर गायत्री यज्ञों के आयोजन करने चाहिए। गलत ढंग से करने पर वे महँगे भी होते हैं और शक्ति की बरबादी भी बहुत करते हैं। यदि उन्हें विवेक-बुद्धि से किया जाए, तो कम खर्च में अधिक आकर्षक भी बन सकते हैं और उपयोगी भी बहुत हो सकते हैं।
अपने सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है। उसका विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्म आयोजनों की अधिकांश आवश्यकता पूरी हो जाती है।
लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं। संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भी उसी की प्रधानता है।
क्रमश:
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