भगवान के नाम की महिमा
गोविन्द माधव मुकुन्द हरे मुरारे,
शम्भो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे।
दामोदराच्युत जनार्दन वासुदेव,
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति।।
स्कन्दपुराण में यमराज नाम महिमा के विषय में कहते हैं-जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव- इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतों! तुम दूर से ही त्याग देना।
यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?
भगवन्नाम महिमा
भगवान का नाम उन परमात्मा का वाचक है जो अखिल ब्रह्माण्ड के नायक, परिचालक, उत्पादक और संहारक हैं। भगवान शब्द समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य का संकेत करता है। अत: भगवान में अनन्त ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों का ज्ञान, उनके अनन्तानन्त कर्मों का ज्ञान, अनन्तानन्त कर्मों के फलों का ज्ञान और उन कर्मफलों को देने की सामथ्र्य है। वे भगवान एक ही हैं; किन्तु उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, प्रजापति, इन्द्र, वरुण, अग्नि, राम, कृष्ण, गोविन्द, वासुदेव, नारायण आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। नाम-संकीर्तन उस परमपिता के प्रति अभिवादन है, उसके अमित उपकारों की स्वीकारोक्ति है और उसके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है। यह दीनता का प्रदर्शन है, गरीब की गुहार है और शरणागतभाव की अभिव्यक्ति है। यह समय का सदुपयोग है जिसमें भक्त स्वयं को समर्पण कर अपने अहंकार को नकारता है। भगवन्नाम शब्द में विलक्षण शक्ति है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह भगवन्नाम उच्चारण करने पर तीक्ष्ण तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ वह सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य भगवत्कृपा का भाजन बनता है और उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-कलजुग केवल नाम अधारा
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।।
कलिजुग जोग न जग्य न ज्ञाना।
एक अधार राम गुन गाना।।
सत्ययुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ के द्वारा और द्वापर में परिचर्या के द्वारा जो परम वस्तु प्राप्त होती है, कलियुग में केवल हरिनाम-संकीर्तन से उसकी प्राप्ति होती है। विष्णुपुराण के अनुसार-कलौ संकीर्त्य केशवम्। कलियुग में भगवान श्रीकृष्ण के कीर्तन को प्रधानता दी गई है। कलियुग में तो संसार-सागर से पार उतरने के लिए एकमात्र भगवान का नाम ही सुदृढ़ नौका है। लगन हो, रटन हो और नाम पर विश्वास हो तो इस नाम-जप के प्रभाव से सब कुछ हो सकता है।
भगवान के नामोच्चारण की महिमा
भगवान के नाम की विलक्षण महिमा है। ये तो सर्वविदित ही है कि इस भगवन्नाम से जल में डूबता हुआ गजराज समस्त शोक से छूट गया। द्रौपदी का वस्त्र अनन्त हो गया। नरसी मेहता के सम्पूर्ण कार्य बिना किसी उद्योग के सिद्ध हो गए। नाम के स्पर्श से सेतुबंधन के समय पत्थर भी तैर गए। मीरा के लिए विष भी अमृत समान हो गया। अवढरदानी शिवजी भी नाम के प्रताप से भयानक विषपान कर गए और नीलकण्ठ बन गए और संसार को भस्मीभूत होने से बचा लिया, व्याध भी 'रामÓ का उल्टा 'मराÓ जपकर वाल्मीकि बन गए। भक्त प्रह्लाद भी हिरण्यकशिपु द्वारा दी गई समस्त विपत्तियों से छूट गए और धधकती हुई ज्वाला भी उन्हें भस्म नहीं कर सकी। बालक ध्रुव को अविचल पदवी प्राप्त हुई। नामजप के प्रभाव से ही हनुमानजी ने श्रीराम को अपना ऋणी बना लिया। अंतकाल में पुत्र का नाम नारायण लेने से अजामिल को भगवत-पद की प्राप्ति हुई। नाम के प्रभाव से ही असंख्य साधकों को चमत्कारमयी सिद्धियां प्राप्त हुईं-ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भगवान के नाम की महिमा को दर्शाते हैं।
नामोच्चार संसार के रोगों के निवारण की महान औषधि है। जैसे जलती हुई अग्नि को शान्त करने में जल सर्वोपरि साधन है, घोर अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य ही समर्थ है, वैसे दम्भ, कपट, मद, मत्सर आदि अनन्त दोषों को नष्ट करने के लिए श्रीभगवन्नाम ही सर्वसमर्थ है। बारम्बार नामोच्चारण करने से जिह्वा पवित्र हो जाती है। मन को अत्यन्त प्रसन्नता होती है। समस्त इन्द्रियों को सच्चिदानंदमय परम सुख प्राप्त होता है। समस्त शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार-भगवान का नाम प्रेम से, बिना प्रेम से, किसी संकेत के रूप में, हंसी-मजाक करते हुए, किसी डांट-फटकार लगाने में अथवा अपमान के रूप में भी ग्रहण करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।
रामचरितमानस में कहा गया है-भाव कुभाव अनख आलसहुँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहुँ।। भगवान का नाम लेकर जो जम्हाई भी लेता है उसके समस्त पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। यथा-राम राम कहि जै जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।
भगवन्नाम से तो बड़े-बड़े अमंगल ही क्या, भाग्य में लिखे हुए अनिष्टकारी योग भी मिट जाते हैं। तीर्थ में वास, लक्ष-लक्ष गोदान अथवा कोटि जन्म के सुकृत-कुछ भी भगवन्नाम के तुल्य नहीं है। नाम की सामथ्र्य असीम है, अचिन्तनीय है।
भक्त नामदेव का कहना है कि-सोने के पर्वत, हाथी और घोड़े का दान तथा करोड़ों गायों का दान नाम के समान नहीं। ऐसा नाम अपनी जीभ पर रखो, जिससे जरा और मृत्यु पुन: न हो।
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