कर्म और भाग्य
सतकर्म का फल
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में ये प्रश्न जरूर पूछता है कि क्या है कर्म। कैसे सर्वांगीण विकास पा सकता हूं। ज्योतिषीय माध्यम में इसे दशम स्थान में कर्म की संज्ञा दी गई है। व्यक्ति प्रथम स्वतंत्र श्वांस लेता है और संपूर्ण प्रकृति के साथ जुड़ा तब कर्मशील हो जाता है। मां से प्यार और पिता से संरक्षण प्राप्त करता है। वहीं से जीवन यात्रा कर्मशीलता के साथ शुरू होती है। व्यक्ति जब भी कर्म में अग्रसर हो तो अनुशासन आने लगता है। भाग्य ने साथ नहीं दिया तब भी कर्म में अग्रसर रहे तो जीवन को सुगमता से आगे बढ़ाता चला जाएगा। कर्म और इच्छा शक्ति एक साथ रहने से सारी यातनाओं से निकल कर लगातार आगे बढ़ता है। श्रीमद भगवत गीता की बात करते हैं तो अर्जुन गांडीव को रखकर निश्चतेज होते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें कर्मशील का पाठ का बोध करवाते हैं। नवग्रहीय व्यवस्था में सूर्य यहां आत्मा के भीतर दीप्तपुंज के माध्यम से हृदय में उदय करते हैं। मंगल पराक्रम बढ़ाते हैं। बुध प्रबंधकीय क्षमताओं को बढ़ाते हैं। वृहस्पति तेज हो तो विश्लेषण की क्षमताएं ग्रहण करता है। शुक्र भौतिक रूप से सुख-सुविधाओं को दर्शाते हैं। शनि धैर्य का अनुशीलन सीखाते हैं। वहीं राहु और केतु चेतनाओं को प्रभावित करते हैं, नकारात्मक नहीं सकारात्मक चेतनाओं को। जीवन के स्तम्भ में बड़े-बड़े लोगों या कम्पनियों के प्रतिष्ठित लोगों ने कर्म की परिभाषा को ही जीवन में उतारा होता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भीतर की आवाज सुनकर कर्मशील होकर ईश्वरीय संदेश का अनुसरण करने लगे तो जीवन में ऊंचाइयों की अग्रसर होता चला जाता है। भले ही भाग्य निर्बल रहे तब भी चरमोत्कर्ष को पा सकता है। गीता हमारे यहां रिटायरमेंट पर दी जाती है, अगर इसे जीवन के शुरुआत में ही आत्मसात किया जाए तो जीवन सफल और सुफल कहा जा सकता है।
कर्म बड़ा या भाग्य
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा।
एक बार भाग्य और कर्म में बहस हो गयी कि कौन बड़ा है। तभी वहां से गुजर रहे देव ऋषि नारदजी पूछा कि भाई! आप दोनों किस बात पर झगड़ा कर रहे हो, कर्म बोला- में बड़ा हूँ,भाग्य बोला- मैं बड़ा हूँ। तब ऋषि वर नारदजी ने दोनों की बात सुनकर कहा कि मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ फिर दोनों ही निश्चय करना कि कौन बड़ा हैं।
एक बार श्रीकृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा मांगते देखा। अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राह्मण को स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक पोटली दे दी। जिसे पाकर ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला। किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली। ब्राह्मण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया। अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राह्मण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा। ब्राह्मण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राह्मण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी। अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राह्मण को मूल्यवान एक माणिक दिया। ब्राह्मण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था, ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया। किन्तु उसका दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा, दिन भर का थका होने के कारण उसे नींद आ गयी। इस बीच ब्राह्मण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर चली गई और जैसे ही उसने घड़े को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया। ब्राह्मण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया। कुछ समय बाद अर्जुन और श्रीकृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूछा। सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राह्मण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता। अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई। उन्होंने उस ब्राह्मण को दो पैसे दान में दिए। तब अर्जुन ने उनसे पुछा -प्रभु मेरी दी मुद्राएं और माणिक भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से इसका क्या होगा? यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा दिए और अर्जुन से उस ब्राह्मण के पीछे जाने को कहा। रास्ते में ब्राह्मण सोचता हुआ जा रहा था कि दो पैसों से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया? प्रभु की यह कैसी लीला है? ऐसा विचार करता हुआ वह चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है।
ब्राह्मण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा-इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं। क्यों न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये। यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोडऩे चल पड़ा। तभी मछली के मुख से कुछ निकला। उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा, वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था। ब्राह्मण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा -मिल गया, मिल गया-। तभी सत कर्म के फल स्वरूप वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राह्मण की मुद्राये लूटी थी। उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना -मिल गया मिल गया- लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोचा कि ब्राह्मण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा। इससे डरकर वह ब्राह्मण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्रायें भी उसे वापस कर दी। यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके। अर्जुन बोले, प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सके वह आपके दो पैसों ने कर दिखाया। श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन यह अपनी सोच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया, वह उसे बिना सत कर्म किये हुए मिला था इसलिए वह केवल अपने सुख के बारे में सोच रहा था किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने अपने बारे में नहीं सोचा, दूसरे के दु:ख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन! सत्य तो यह है कि मनुष्य के सत कर्म का फल में ब्याज लगाकर वापिस करता और दुष्कर्म का भी। इसलिए उसने अपने बारे में न सोच कर दूसरे के हित के बारे में सोचा, जब आप दूसरों के दु:ख के विषय में सोचते हैं, तब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, और आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, तभी ईश्वर आपके साथ होते हैं।
तब नारदजी ने दोनों से कहा कि सत कर्म सबसे बड़ा है, कर्म से ही तो भाग्य बनता है, कर्म वृक्ष का फल ही तो भाग्य हैं। भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि -
कर्मणि, एव, अधिकार:, ते, मा, फलेषु, कदाचन,
मा, कर्मफलहेतु:, भू:, मा, ते, संग:, अस्तु, अकर्मणि।।
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