22. वेद : रोग निवारण सूक्तियां
लगातार.......
आयुर्वेद की उत्पत्ति के पहले इस विज्ञान के बारे में भारतीय वेदों में जिक्र किया गया है। वेदों में आयुर्वेद के विषय में अथर्ववेद में रोग निवारण सूक्त दिये गये हैं, जिनसे पता चलता है कि जो लोग बीमार हो जाते थे, वे उस समय रोग-अवस्था से निजात पाने के लिये क्या-क्या करते थे और किस पर निर्भर होते थे। यानि मंत्र शक्ति के आधार पर ऋषि-मुनि आरोग्यता को प्राप्त होते थे। यदि पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ अथर्ववेद के ये सूक्त जो मंत्र रूप में विद्यमान है, इनका उपयोग करे तो रोगों से मुक्ति पा सकता है।
चार वेदों मे सबसे अधिक अथर्ववेद में रोग निवारण सूक्तियां दी गयी है। अथर्ववेद के चतुर्थ कान्ड का 13 वां सूक्त तथा ऋग्वेद के दशम मन्डल का 137 वां सूक्त रोग निवारण सूक्त के नाम से जानते हैं। अथर्ववेद में सूक्तों को सारगर्भित रूप में ऋषि शन्ताति तथा देवता चन्द्रमा और विश्वेदेवा हैं। जबकि ऋग्वेद में प्रथम मन्त्र के ऋषि भारद्वाज, द्वितीय के कश्यप, तृतीय के गौतम, चतुर्थ के आत्रि, पन्चम के विश्वामित्र, षष्ट के जमदाग्नि, सप्तम के ऋषि वशिष्ठ जी हैं और देवता विश्वे देवा हैं। इस सूक्त के जप पाठ से रोगों से मुक्ति अर्थात आरोग्यता प्राप्त होती है। ऋषी ने रोग मुक्त होने के लिये देवताओं से प्रार्थना की है।
उत देवा अवहितं देवा उन्न्यथा पुन:।
उतागश्च्कुषं देवा देवा जीव यथा पुन:।।
अर्थात- हे देवो, हे देवो, आप नीचे गिरे हुये को फिर निश्चय पूर्वक ऊपर उठायें। हे देवों, हे देवों, और पाप करने वाले को भी फिर जीवित करें, जीवित करें।
द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावत:।
दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यौ वातु यद्रप:।।
अर्थात- ये दो वायु हैं। समुद्र से आने वाला पहला वायु है और दूर भूमि पर से आने वाला दूसरा वायु है। इनमे से एक वायु तेरे पास बल ले आये और दूसरा वायु जो दोष है, उसको दूर करे।
आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रप:।
त्वं हि विश्व भेषज देवानां दूत ईयसे।।
अर्थात- हे वायु, औषधि यहां ले आ। हे वायु! जो दोष हैं, वह दूर कर दे। हे सम्पूर्ण औषधियों को साथ रखने वाले वायु! नि:संदेह तू देवों का दूत जैसा होकर चलता है, जाता है, प्रवाहित है।
त्रायन्तामिमं देवास्वायन्तां मरुतां गणा:।
त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत।।
अर्थात- हे देवों! इस रोगी की रक्षा करें। हे मरुतों के समूहो! रक्षा करें। जिससे यह रोगी रोग दोष रहित हो जाये।
आ त्वागमं शन्ताति भिरिथो अरिष्टतातिभि:।
दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।
अर्थात- आपके पास शान्ति फैलाने वाले तथा अविनाशी साधनों के साथ आया हूं। तेरे लिये प्रचन्ड बल भर देता हूं। तेरे रोग को दूर कर भगा देता हूं।
अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तर:।
अयं में विश्व भेषजोऽयं शिवाभिमर्शन:।।
अर्थात- मेरा यह हाथ भाग्यवान है। मेरा यह हाथ अधिक भाग्यशाली है। मेरा यह हाथ सब औषधियों से युक्त है और मेरा यह हाथ शुभ स्पर्श देने वाला है।
हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिव्हा वाच: पुरोगवी।
अनामयीत्रुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि।।
अर्थात- दस शाखा वाले दोनों हाथों के साथ वाणी को आगे प्रेरणा करने वाली जीभ है। उन नीरोग करने वाले दोनों हाथों से तुझे हम स्पर्श करते हैं।
वेदों में व्यक्त की गयी सूक्तियों से यह तो प्रमाणित ही है कि आयुर्वेद की नींव यहीं से शुरू हुयी और इस बुनियाद के बल पर किये गये निरन्तर विकास से स्वस्थ्य वृत्त यानी शरीर को स्वस्थय कैसे रखा जा सकता है, इसके नियम विकसित किये गये जो मनीषियों नें अपने ज्ञान से प्राप्त किये थे। हजारों साल के नियमित अभ्यास से आयुर्वेद का विकास हुआ और इसका उद्गम अथर्ववेद तथा ऋग्वेदों की सूक्तियों से हुआ।
क्रमश:
badiya gyan
ReplyDelete/\
prince kumra, raxaul bihar
Jai ho
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