24. वेद : जीवन सार
लगातार.......
वेदों में जीवन का सार निहित है। इसीलिए उनमें जीवन की कार्यप्रणाली कैसी रहनी चाहिए से लेकर सदाचरण तक सब कुछ मिल जाता है।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठत:।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति॥
भावार्थ-जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है। जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है। जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है। इसलिए तुम विचरण ही करते रहो।
न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मन:।
अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्य: प्राप्तुमर्हति॥
भावार्थ-दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को कार्य-संपादन का अपना प्रयास त्याग नहीं देना चाहिए। भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है?
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्तियैराहत: शोचन्ति रात्र्यहानि।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत परेषु॥
भावार्थ-कठोर वचन रूपी बाण दुर्जन लोगों के मुख से निकलते ही हैं, और उनसे आहत होकर अन्य जन रात-दिन शोक एवं चिंता से घिर जाते हैं। स्मरण रहे कि ये वाग्वाण दूसरे के अमर्म यानी संवेदनाशून्य अंग पर नहीं गिरते, अत: समझदार व्यक्ति ऐसे वचन दूसरों के प्रति न बोले।
नारुन्तुद: स्यान्न नृशंसवादी न हीनत: परमभ्याददीत।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम्॥
भावार्थ-दूसरे के मर्म को चोट न पहुंचाए, चुभने वाली बातें न बोले, घटिया तरीके से दूसरे को वश में न करे, दूसरे को उद्विग्न करने एवं ताप पहुंचाने वाली, पापी जनों के आचरण वाली बोली न बोले।
अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम्।
न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै॥
भावार्थ-अनजाने में जिन्होंने अपराध किया हो उनका अपराध क्षमा किया जाना चाहिए, क्योंकि हर मौके या स्थान पर समझदारी मनुष्य का साथ दे जाए ऐसा हो नहीं पाता है। भूल हो जाना असामान्य नहीं, अत: भूलवश हो गये अनुचित कार्य को क्षम्य माना जाना चाहिए।
सद्भि: पुरस्तादभिपूजित:स्यात् सद्भिस्तथापृष्ठतो रक्षित: स्यात्।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्त:॥
भावार्थ-व्यक्ति के कर्म ऐसे हों कि सज्जन लोग उसके समक्ष सम्मान व्यक्त करें ही, परोक्ष में भी उनकी धारणाएं सुरक्षित रहें। दुष्ट प्रकृति के लोगों की ऊलजलूल बातें सह ले, और सदैव श्रेष्ठ लोगों के सदाचारण में स्वयं संलग्न रहे।
नाङ्गुल्या कारयेत् किञ्चिद् दक्षिणेन तु सादरम्।
समस्तेनैव हस्तेन मार्गमप्येवमादिशेत्॥
भावार्थ-रास्ते के बारे में पूछने वाले पथिक को उंगली के इशारे से संकेत नहीं देना चाहिए, बल्कि समूचे दाहिने हाथ को धीरे-से समुचित दिशा की ओर उठाते हुए आदर के साथ रास्ता दिखाना चाहिए।
क्रमश:
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