40. वेद : श्रीमद्भगवदगीता
लगातार......
अक्षरब्रह्मयोग (भगवत्प्राप्ति)
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुन: अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं, जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं।
अलपज्ञानी पुरूष, जो इस भौतिक जगत् में बने रहना चाहते हैं, उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उन्हें पुन: इस धरालोक पर आना होता है, वे ब्रह्माजी का दिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तथा निम्नतर लोकों में अपने कार्यों का प्रदर्शन करते हैं, किन्तु ब्रह्माजी की रात्रि होते ही वे विनष्ट हो जाते हैं, दिन में उन्हें भौतिक कार्यों के लिये नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं, किन्तु रात्रि के होते ही उनके शरीर भगवान् श्रीविष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं, वे पुन: ब्रह्माजी का दिन आने पर प्रकट होते हैं- भूत्वा-भूत्वा प्रलीयते दिन के समय वे प्रकट होते हैं और रात्रि के समय पुन: विनष्ट हो जाते हैं, अन्तोतगत्वा जब ब्रह्माजी का जीवन समाप्त होता है तो उन सबका संहार हो जाता है। और वे करोड़ों वर्षों तक अप्रकट रहते हैं, अन्य कल्प में ब्रह्माजी का पुनर्जन्म होने पर वे पुन: प्रकट होते हैं, इस प्रकार वे भौतिक जगत् के जादू से मोहित होते रहते हैं, किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति भगवद्भक्ति स्वीकार करते हैं, वे इस मनुष्य जीवन का उपयोग भगवान् की भक्ति करने में तथा भगवान् के नाम रूपी मन्त्र एवम् भगवान् के कीर्तन में बिताते है, इस प्रकार वे इसी जीवन में कृष्णलोक को प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्त होकर सतत् आनन्द का अनुभव करते हैं।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:। य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है, यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है, जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता, जिसे वेदान्ती अप्रकट तथा अविनाशी बताते है, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है।
श्रीकृष्ण की पराशक्ति दिव्य तथा शाश्वत है, यह उस भौतिक प्रकृति के समस्त परिवर्तनों से परे है, जो ब्रह्माजी के दिन के समय व्यक्त और रात्रि के समय विनष्ट होती रहती है, श्रीकृष्ण की पराशक्ति भौतिक प्रकृति के गुण से सर्वथा विपरीत है, परा तथा अपरा प्रकृति की व्याख्या अलग है। ब्रह्मसंहिता में भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम को चिन्तामणि धाम कहा गया है, जो ऐसा स्थान है जहाँ सारी इच्छायें पूरी होती है, भगवान् श्रीकृष्ण का परमधाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और वह पारसमणि से निर्मित प्रासादों से युक्त है।
वहाँ पर वृक्ष भी है जिन्हें कल्पतरू कहा जाता है, जो इच्छा होने पर किसी भी तरह का खाद्य पदार्थ प्रदान करने वाले हैं, वहाँ गाय भी है जिन्हें सुरभि गाय कहा जाता है और वे अनन्त दुग्ध देने वाली है, इस धाम में भगवान् की सेवा के लिये लाखों लक्ष्मीजी है, वे आदि भगवान् गोविन्द तथा समस्त कारणों के कारण कहलाते हैं, भगवान् वंशी बजाते रहते हैं वेणु कणन्तम् भगवान् का दिव्य स्वरूप समस्त लोकों में सर्वाधिक आकर्षक है।
भगवान् के नेत्र कमलदलों के समान और भगवान् का शरीर मेघों के वर्ण का है, भगवान् इतने रूपवान है कि उनका सौन्दर्य हजारों कामदेवों को मात करता है, भगवान् पीत वस्त्र धारण करते हैं, भगवान् के गले में माला रहती है और केशों में मोरपंख शोभा पाता है, भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अपने निजी धाम, गोलोक वृन्दावन का संकेत मात्र करते हैं, जो आध्यात्मिक जगत् में सर्वश्रेष्ठ लोक है, इसका विशद वृत्तान्त ब्रह्मसंहिता में मिलता है।
कठोपनिषद् (1/3/11) में बताया गया है कि भगवान् का धाम सर्वश्रेष्ठ है और यही परमधाम है- पुरूषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा परमा गति:- एक बार वहाँ पहुँच कर फिर से भौतिक संसार में वापस नहीं आना होता। श्रीकृष्ण का परमधाम तथा स्वयं श्रीकृष्ण अभिन्न हैं, क्योंकि वे दोनों एक से गुण वाले हैं। आध्यात्मिक आकाश में स्थित इस गोलोक वृन्दावन की प्रतिकृति (वृन्दावन) इस पृथ्वी पर स्थित है, जब श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था तो भगवान् ने इसी भूमि पर क्रीड़ा की थी, जिसे वृन्दावन कहते हैं।
क्रमश:
Comments
Post a Comment