कुम्भ मेले की दो मान्यताएं
कुम्भ मेले का आयोजन 12 साल में एक बार होता है। इसको लेकर दो तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक मान्यता ज्योतिष है तो दूसरी पौराणिक है। शास्त्रों के अनुसार चार विशेष स्थान है, जिन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। नासिक में गोदावरी नदी के तट पर, उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर, हरिद्वार और प्रयाग में गंगा नदी के तट पर। सबसे बड़ा मेला कुंभ 12 वर्षो के अन्तराल में लगता है और 6 वर्षो के अन्तराल में अद्र्ध कुंभ के नाम से मेले का आयोजन होता है। वर्ष 2019 में आयोजित प्रयाग में अद्र्ध कुंभ मेले का आयोजन 4 मार्च, 2019 महाशिवरात्रि तक चलने वाला है।
अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच 6 साल के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है।
ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार भचक्र में स्थित 360 अंश को 12 भागों में बांटकर 12 राशियों की कल्पना की गई है। भचक्र से तात्पर्य आकाश मंडल से है। हर कुंभ के निर्धारित मुहूर्त में गुरु और सूर्य विशेष महत्वपूर्ण होते हैं। गुरु एक राशि पर लगभग 13 महीने तक रहता है और फिर उसी राशि पर आने में 12 वर्ष का समय लगता है। यही कारण है कि कुंभ पर्व 12 वर्ष में एक बार होता है। हरिद्वार, प्रयाग व नासिक में हर 12वें साल में कुंभ की परंपरा है। उज्जैन में कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है क्योंकि इस समय गुरु सिंह राशि में होता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पृथ्वी के उत्तर भाग मे हिमालय के समीप देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया। इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा रम्भा कल्पबृक्ष शंख, गदा धनुष कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें। इस कलश के लिए असुरों और दैत्यों में संघर्ष शुरू हो गया। अमृत कलश को दैत्यों से बचाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि की सहायता से उसे लेकर भागे। यह देखकर दैत्यों ने उनका पीछा किया। यह पीछा बारह दिनों तक होता रहा। देवता उस कलश को छिपाने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को भागते रहे और असुर उनका पीछा करते रहे।
इस भागदौड़ में देवताओं को पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करनी पड़ी। इन बारह दिनों की भागदौड़ में देवताओं ने अमृत कलश को हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन नामक स्थानों पर रखा। इन चारों स्थानों में रखे गए कलश से अमृत की कुछ बूंदे छलक पड़ी। अंत में कलह को शांत करने के लिए समझौता हुआ। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को भरमाए रखा और अमृत को इस प्रकार बांटा कि दैत्यों की बारी आने तक कलश रिक्त हो गया। देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर माना गया है। इसलिए हर 12वें वर्ष कुंभ की परंपरा है।
ब्रह्म पुराण एवं स्कंद पुराण के दो श्लोकों के माध्यम इसे समझा जा सकता है-
विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते उत्त्रे सापि विन्ध्यस्य भगीरत्यभिधीयते.
एव मुक्त्वाद गता गंगा कलया वन संस्थिता गंगेश्वेरं तु य: पश्येत स्नात्वा शिप्राम्भासि प्रिये।
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