प्रदोष व्रत : 31 मई को
शिव की कृपा पाने और भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रदोष व्रत किया जाता है। प्रदोष व्रत चन्द्र मास की दोनों त्रयोदशी के दिन किया जाता है जिसमे से एक शुक्ल पक्ष के समय और दूसरा कृष्ण पक्ष के समय होता है।
प्रदोष का दिन जब सोमवार को आता है तो उसे सोम प्रदोष कहते हैं, मंगलवार को आने वाले प्रदोष को भौम प्रदोष कहते हैं और जो प्रदोष शनिवार के दिन आता है उसे शनि प्रदोष कहते हैं।
जिस दिन त्रयोदशी तिथि प्रदोष काल के समय व्याप्त होती है उसी दिन प्रदोष का व्रत किया जाता है। प्रदोष काल सूर्यास्त से प्रारम्भ हो जाता है। जब त्रयोदशी तिथि और प्रदोष साथ-साथ होते हैं (जिसे त्रयोदशी और प्रदोष का अधिव्यापन भी कहते हैं) वह समय शिव पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है। ऐसा माना जाता है कि प्रदोष के समय शिवजी प्रसन्नचित मनोदशा में होते हैं।
प्रदोष व्रत कथा
स्कंद पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र को लेकर भिक्षा लेने जाती और संध्या को लौटती थी। एक दिन जब वह भिक्षा लेकर लौट रही थी तो उसे नदी किनारे एक सुन्दर बालक दिखाई दिया, लेकिन वह नहीं जानती थी कि वह बालक कौन है।
दरअसल वह बालक विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त था, जिसे शत्रुओं ने उसके राज्य से बाहर कर दिया था। एक भीषण युद्ध में शत्रुओं ने उसके पिता को मारकर उसका राज्य हड़प लिया था। तत्पश्चात उसकी माता की भी मृत्यु हो गई।
नदी किनारे बैठा वह बालक बेहद उदास लग रहा था, इसलिए ब्राह्मणी ने उस बालक को अपना लिया और उसका पालन-पोषण किया। अब वह उसे ठीक उसी प्रकार से स्नेह करती जैसे कि अपने स्वयं के पुत्र को करती थी, राजकुमार भी उसके साथ अति प्रसन्न था।
कुछ समय पश्चात ब्राह्मणी दोनों बालकों के साथ देवयोग से देव मंदिर गई। वहां उनकी भेंट ऋषि शाण्डिल्य से हुई। ऋषि शाण्डिल्य उस समय के विख्यात ऋषि थे, जिन्हें हर कोई मानता था।
ऋषि ने ब्राह्मणी को बताया कि जो बालक उन्हें मिला है वह विदर्भ देश के राजा का पुत्र है जो युद्ध में मारे गए थे। राजा तो युद्ध में मारे गए लेकिन बाद में उनकी रानी यानी कि उस बालक की माता को ग्राह ने अपना भोजन बना लिया था।
यह सुन ब्राह्मणी बेहद दुखी हुई, लेकिन तभी ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी। ऋषि आज्ञा से दोनों बालकों ने भी प्रदोष व्रत करना शुरू किया। सभी ने ऋषि द्वारा बताए गए पूर्ण विधि-विधान से ही व्रत सम्पन्न किया, लेकिन वह नहीं जानते थे कि यह व्रत उन्हें क्या फल देने वाला है।
एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आईं। ब्राह्मण बालक तो घर लौट आया किंतु राजकुमार धर्मगुप्त वहीं रह गए। वे वहां अंशुमती नाम की एक गंधर्व कन्या की ओर आकर्षित हो गए थे और उनसे बात करने लगे।
गंधर्व कन्या और राजकुमार एक-दूसरे पर मोहित हो गए, कन्या ने विवाह हेतु राजकुमार को अपने पिता से मिलवाने के लिए बुलाया। दूसरे दिन जब वह पुन: गंधर्व कन्या से मिलने आया तो गंधर्व कन्या के पिता को मालूम हुआ कि वह विदर्भ देश का राजकुमार है। भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से कराया।
वह समय दूर नहीं था जब राजकुमार के सितारे वापस पलटने लगे। इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने बेहद संघर्ष किया, दोबारा से अपनी गंधर्व सेना तैयार की और युद्ध करके अपने विदर्भ देश पर पुन: आधिपत्य प्राप्त किया।
कुछ समय के पश्चात उन्हें यह ज्ञात हुआ कि जो कुछ भी बीते समय में उन्हें हासिल हुआ है वह यूं ही नहीं हुआ। यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें जीवन की हर कठिनाई से लडऩे की शक्ति प्रदान की।
तभी से हिदू धर्म में यह मान्यता उत्पन्न हो गई कि जो भक्त प्रदोष व्रत के दिन शिवपूजा के बाद एकाग्र होकर प्रदोष व्रत कथा सुनता या पढ़ता है उसे सौ जन्मों तक कभी दरिद्रता नहीं होती। उसके जीवन के सभी कष्ट अपने आप ही दूर होते जाते हैं। भोलेनाथ उनके जीवन पर समस्या के बादल नहीं आने देते।
प्रदोष व्रत यूं तो अपने आप में ही महान है, लेकिन जिस भी दिन यह व्रत आता है, उसके आधार पर इस व्रत का नाम एवं महत्व बदलता जाता है। उदाहरण के लिए यदि रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा निरोग रहेंगे, इस व्रत को रविप्रदोष व्रत कहा जाता है। इसके बाद यदि आप सोमवार के दिन व्रत करते हैं, तो इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। मंगलवार को प्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं। बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होती है। बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है। शुक्रवार प्रदोष व्रत से सौभाग्य की वृद्धि होती है। अंत में आता है शनिवार का दिन, तो शनिवार के दिन यदि आप प्रदोष व्रत करते हैं तो इससे पुत्र की प्राप्ति होती है।
प्रदोष व्रत को विधिपूर्वक सूर्यास्त के पश्चात रात्रि के आने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है उस समय शिव जी की पूजा-अर्चना की जाती है। प्रात: काल स्नान करके भगवान शिव की (बेलपत्र), गंगाजल, अक्षत, धूप, दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।
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