जीव के चार भेद
सामान्यत: जीव के चार भेद है- (1) पामर (2) विषयी (3) मुमुक्षु (4) मुक्त। अधर्म से धन का उपार्जन करे और अनीतिपूर्वक उपभोग करे,वह पामर जीव है। धर्म का पालन करके कमाई करके, फिर वह कमाई- इन्द्रिय-सुख का उपभोग करे वह विषयी जीव है। सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाने की इच्छा और प्रयत्न करने वाला जीव मुमुक्षु जीव है। कनक और कांतारूपी माया के बंधनों से मुक्त होकर प्रभु में तन्मय हुआ जीव मुक्त जीव है।
शास्त्रों में कहा गया है राजस, तामस और सात्विक, किसी भी प्रकृति का जीव कृष्ण-कथा में से आनन्द पा सकता है। इसलिए दशम स्कंध के तीन विभाग किए है- सात्विक प्रकरण, राजसिक प्रकरण और तामसिक प्रकरण। श्रीकृष्ण प्रेम-स्वरुप होने से परिपूर्ण माधुर्य से भरे हुए हैं। श्रीकृष्ण लीला के विविध रसों में से कोई भी रस से रूचि को पुष्टि मिलती है। धीरे धीरे संसार से आसक्ति कम होती है और श्रीकृष्ण में आसक्ति होने से जीवन सफल होता है। ईश्वर में मन का निरोध होने पर मुक्ति सुलभ है। श्रीकृष्ण को मन में रखने से मन का निरोध होता है। मन का निरोध ईश्वर में ही हो सकता है,अन्य किसी चीज में मन का निरोध नहीं हो शकता है।
परीक्षित राजा के मन को सांसारिक विषयों में से हटाकर श्रीकृष्ण के साथ एकरूप करके उसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही यह दशम स्कंध है। इसमें श्रीकृष्ण की वह लीला का वर्णन है, जिसने अनेकों को प्रेम-पागल बना दिया। सनातन स्वामी कभी किसी राजा के मंत्री थे। दशम स्कंध की कथा सुनकर वे साधु हो गए। यह कथा राजा को भी आकर्षित करती है और योगियों को भी। इसका कारण है -श्रीकृष्ण- चित्त की शान्ति तो क्या-स्वयं चित्त को ही चुराते हैं। ऐसा अद्भुत है उनका रूप।
शुकदेवजी महायोगी और महाज्ञानी है, पर सब छोड़कर, समाधी छोड़कर कृष्ण कथा में पागल बने हैं। परीक्षित ने पूछा -आपने सर्व का त्याग किया किन्तु कृष्ण कथा का त्याग नहीं किया। आपने अपने पिता से भी कह दिया था कि-न तो आप उनके पुत्र हैं और न वे आपके पिता। आपने पिता का तो त्याग किया किन्तु कृष्ण कथा का नहीं। आपको भी यह कथा आनन्द देती है।
महापुरुष कहते हैं कि-जब तक नाक पकड़कर बैठे है (अर्थात तप-या समाधि कर रहे हैं) तब तक ठीक है, किन्तु आसन से उठ जाने पर कब मन भागने लगता है, उसकी खबर तक नहीं हो पाती। मन को निर्विषयी बनाओ। यह बड़ा कठिन है। इसलिए वैष्णव कहते हैं कि मन को प्रतिकूल विषयों में से हटकर अनुकूल विषयों में जोड़ दो। वेदांती कहते हैं कि जब आत्मा को बंधन ही नहीं है तो फिर मुक्ति का प्रश्न ही कैसे उपस्थित हो सकता है?
वैष्णवो को भगवान की सेवा में ऐसा आनन्द मिलता है कि वे मुक्ति की इच्छा ही नहीं रखते। योगी जब तक आँखे मूंदकर समाधि में बैठे हैं, तब तक उनका मन स्थिर रहता है, किन्तु योगावस्था में से जागृत होने पर, आँखे खुलते ही मन चंचल होकर सांसारिक विषयों में खो जाता है। इसलिए ज्ञानमार्ग को कठिन माना गया है। ज्ञान मार्ग में पतन का भय होता है। भक्ति मार्ग में इन्द्रियों के साथ झगड़ा नहीं होता। भक्ति मार्ग में आँख और सभी इन्द्रियाँ प्रभु को देनी होती है। कृष्णा कथा में अपने आप ही खुल्ली आँखों से ही समाधि लग जाती है। आँख बंद होने पर मन शांत रहे उसका ज्ञान कच्चा। पर खुली आँखों से मन शांत रहे वह ज्ञान सच्चा है। खुली आँखों से जगत -ना- दिखे और प्रभु दिखे वह ज्ञान सच्चा है।
समाधि के दो प्रकार है- जड़ और चेतन।
जड़ समाधि वह है, जिसमे योगी मन को बलपूर्वक वश में रखने का प्रयत्न करते है। मन पर ऐसा बल प्रयोग करना भी ठीक नहीं है। इसी कारण से कई जगह हठयोग की निंदा की है। हठयोगी को भक्ति का सहारा न मिल पाये तो उसका योग निरर्थक है। मन पर बल प्रयोग करने की अपेक्षा उसे प्रेम से समझाकर वश में करना अच्छा है। मन की कोई सत्ता नहीं होती। मन आत्मा की आज्ञा में है। आत्मा के आदेशानुसार मन को कार्य करना पड़ता है। मन को शास्त्र में नपुंसक कहा गया है। योगी मन को बलपूर्वक ब्रह्मरंध्र में स्थापित करते हैं। उस समय उनका शरीर जड़ हो जाता है। जड़ समाधि में शरीर का ख्याल नहीं रहता। जड़ समाधि की तुलना में चेतन समाधि श्रेष्ठ है। गोपियों की समाधि चेतन समाधि है। वे कान बंद करके या आँख मूंद कर नहीं बैठती। वे तो खुली आँखों से ही कृष्ण के ध्यान में तन्मय हो जाती हैं। वे तो अपने कान और आँखों में ही श्रीकृष्ण को बसाती हैं।
यह देखकर तो उद्धवजी जैसे ज्ञानी को भी आश्चर्य हुआ है। गोपियों का कृष्ण प्रेम देखकर उद्धवजी का अभिमान उतर गया है। ये गोपियाँ को तो-खुली आँखों से भी समाधि लग सकती है। समाधि ऐसी साहजिक होनी चाहिए। इसलिए तो उद्धवजी की निर्गुण निराकार ब्रह्म की आराधना की बात सुनकर गोपियों ने कहा था-कि-हम तो खुली आँखों से ही सर्वत्र साकार ब्रह्म श्रीकृष्ण का दर्शन करते हैं। अत: साकार ब्रह्म को छोड़कर तुम्हारे निराकार ईश्वर का ध्यान-चिंतन क्यों करे? हे,उद्धवजी, जो खुली आँखों से ब्रह्म (ईश्वर) का दर्शन कर नहीं पाता,
वही -ही-अपनी आँखों को मूंदकर ललाट में ब्रह्म (ईश्वर) के दर्शन करने का प्रयत्न करता है। हम तो हर-जगह, हर-पल श्रीकृष्ण के दर्शन करते हैं, उनका चिन्तन करते हैं, और उनका ध्यान करते हैं। उद्धवजी को तो सिर्फ मथुरा में ही श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं, पर गोपियों को तो जहाँ-जहाँ उनकी नजर जाए वहाँ उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं। परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने के बाद योग-समाधि की जरुरत नहीं रहती।
इसलिए गंगा किनारे शुकदेवजी गोपियों के प्रेम की कथा करते हैं। गोपियों की खूब तारीफ करते हैं। भक्तिसूत्र में नारदजी ने भी यही कहा है -भक्ति कैसी करनी? तो नारद बोले- गोपियों जैसी। गोपियाँ गृहस्थ होने पर भी महापरमहंस हैं। जो सभी बाह्य विषयों से अलिप्त होकर कृष्णप्रेम में तन्मय हो जाती हैं। श्रीकृष्ण भी महागृहस्थ है और महासन्यासी भी। घर में रहते हुए भी सन्यासी जीवन कैसे जिया जा सकता है, यह श्रीकृष्ण ने बताया है।
शुकदेवजी महायोगी है, महान ज्ञानी है, महान वैरागी है पर उन्होंने कृष्ण कथा छोड़ी नहीं है। कथा मनुष्य की मन की थकान दूर करती है। कथा सुनते रहने से भगवान को मिलने की आतुरता बढ़ती है।
Comments
Post a Comment