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नवरात्रि में पाएं आर्थिक समृद्धि

हिन्दू धर्म में नवरात्रि को बहुत ही अहम माना गया है। भक्त नौ दिनों तक व्रत रखते हैं और देवी मां की पूजा करते हैं। साल में कुल चार नवरात्रि पड़ती है और ये सभी ऋतु परिवर्तन के संकेत होते हैं। या यूं कहें कि ये सभी ऋतु परिवर्तन के दौरान मनाए जाते हैं। सामान्यत: लोग दो ही नवरात्र के बारे में जानते हैं। इनमें पहला वासंतिक नवरात्र है, जो कि चैत्र में आता है। जबकि दूसरा शारदीय नवरात्र है, जो कि आश्विन माह में आता है। हालांकि इसके अलावा भी दो नवरात्र आते हैं जिन्हें गुप्त नवरात्र कहा जाता है। नवरात्र के बारे में कई ग्रंथों में लिखा गया है और इसका महत्व भी बताया गया है। इस बार आषाढ़ मास में गुप्त नवरात्रि की शुरुआत हो रही है। यह अंग्रेजी महीनों के मुताबिक 3 जुलाई से 10 जुलाई तक चलेगा। इन दिनों में तांत्रिक प्रयोगों का फल मिलता है, विशेषकर धन प्रात्ति के रास्ते खुलते हैं। धन प्रात्ति के लिए नियमपूर्वक-विधि विधान से की गई आराधना अवश्य ही फलदायी सिद्ध होती है। नौकरी-पेशे वाले धन प्रात्ति के लिए ऐसे करें पूजा-अर्चना- गुप्त नवरात्रि में लाल आसन पर बैठकर मां की आराधना करें।  मां को लाल कपड़े में...

गीता में गुणातीत पुरुष के लक्षण

गुणातीत पुरुष दु:खों से मुक्त होकर अमरता को प्राप्त कर लेता है—ऐसा सुनकर अर्जुन के मन में गुणातीत मनुष्य के लक्षण जानने की जिज्ञासा हुई। अत: वे श्लोक में भगवान से प्रश्न करते हैं।
अथ चतुर्दशोस्ध्याय: गुणत्रयविभागयोग
भगवत्प्राप्तिका उपाय एवं गुणातीत पुरुषके लक्षण (19-27)श्लोक- (14/20)
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादु:खैॢवमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ 20॥

भावार्थ- देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दु:खों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।
'गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्'— यद्यपि विचार-कुशल मनुष्य का देह के साथ सम्बन्ध नहीं होता, तथापि लोगों की दृष्टि में देहवाला होने से उसको यहाँ 'देही' कहा गया है।
देह को उत्पन्न करने वाले गुण ही हैं। जिस गुण के साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है, उसके अनुसार उसको ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेना ही पड़ता है (गीता— तेरहवें अध्याय का इक्कीसवाँ श्लोक)।
अभी इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक से अठारहवें श्लोक तक जिनका वर्णन हुआ है, उन्हीं तीनों गुणों के लिये यहाँ 'एतान् त्रीन् गुणान्' पद आये हैं। विचार-कुशल मनुष्य इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् इनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता, इनके साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग कर देता है। कारण कि उसको यह स्पष्ट विवेक हो जाता है कि सभी गुण परिवर्तनशील हैं, उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं और अपना स्वरूप गुणों से कभी लिप्त हुआ नहीं, हो सकता भी नहीं।
ध्यान देने की बात है कि जिस प्रकृति से ये गुण उत्पन्न होते हैं, उस प्रकृति के साथ भी स्वयं का किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, फिर गुणों के साथ तो उसका सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है?
'जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते'— जब साधक इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है, तो फिर उसको जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था का दु:ख नहीं होता। वह जन्म-मृत्यु आदि के दु:खों से छूट जाता है; क्योंकि जन्म आदि के होने में गुणों का संग ही कारण है। ये गुण आते-जाते रहते हैं; इनमें परिवर्तन होता रहता है।
गुणों की वृत्तियाँ कभी सात्त्विकी, कभी राजसी और कभी तामसी हो जाती हैं; परन्तु स्वयं में कभी सात्त्विकपना, राजसपना और तामसपना आता ही नहीं। स्वयं (स्वरूप) तो स्वत: असंग रहता है। इस असंग स्वरूप का कभी जन्म नहीं होता। जब जन्म नहीं होता, तो मृत्यु भी नहीं होती। कारण कि जिसका जन्म होता है, उसी की मृत्यु होती है तथा उसी की वृद्धावस्था भी होती है। गुणों का संग रहने से ही जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था के दु:खों का अनुभव होता है। जो गुणों से सर्वथा निर्लिप्तता का अनुभव कर लेता है, उसको स्वत:सिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है।
देह से तादात्म्य (एकता) मानने से ही मनुष्य अपने को मरने वाला समझता है। देह के सम्बन्ध से होने वाले सम्पूर्ण दु:खों में सबसे बड़ा दु:ख मृत्यु ही माना गया है। मनुष्य स्वरूप से है तो अमर ही; किन्तु भोग और संग्रह में आसक्त होने से और प्रतिक्षण नष्ट होने वाले शरीर को अमर रखने की इच्छा से ही इसको अमरता का अनुभव नहीं होता। विवेकी मनुष्य देह से तादात्म्य नष्ट होने पर अमरता का अनुभव करता है।
पूर्वश्लोक में 'मद्भावं सोऽधिगच्छति' पदों से भगवद्भाव की प्राप्ति कही गयी एवं यहाँ 'अमृतमश्नुते' पदों से अमरता का अनुभव करने को कहा गया—वस्तुत: दोनों एक ही बात है।
गीता में 'जरामरणमोक्षाय' (7। 29),
'जन्ममृत्यु- जराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम्'(13। 8) और यहाँ 'जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्त' (14। 20)—इन तीनों जगह बाल्य और युवा-अवस्था का नाम न लेकर 'जरा' (वृद्धावस्था) का ही नाम लिया गया है, जबकि शरीर में बाल्य, युवा और वृद्ध—ये तीनों ही अवस्थाएँ होती हैं।
इसका कारण यह है कि बाल्य और युवा-अवस्था में मनुष्य अधिक दु:ख का अनुभव नहीं करता; क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओं में शरीर में बल रहता है। परन्तु वृद्धावस्था में शरीर में बल न रहने से मनुष्य अधिक दु:ख का अनुभव करता है। ऐसे ही जब मनुष्य के प्राण छूटते हैं, तब वह भयंकर दु:ख का अनुभव करता है। परन्तु जो तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है, वह सदा के लिये जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था के दु:खों से मुक्त हो जाता है।
इस मनुष्य शरीर में रहते हुए जिसको बोध हो जाता है, उसका फिर जन्म होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हाँ, उसके अपने कहलाने-वाले शरीर के रहते हुए वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही, पर उसको वृद्धावस्था और मृत्यु का दु:ख नहीं होगा।
वर्तमान में शरीर के साथ स्वयं की एकता मानने से ही पुनर्जन्म होता है और शरीर में होने वाले जरा व्याधि आदि के दु:खों को जीव अपने में मान लेता है। शरीर गुणों के संग से उत्पन्न होता है। देह के उत्पादक गुणों से रहित होने के कारण गुणातीत महापुरुष देह के सम्बन्ध से होने-वाले सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है।
अत: प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु से पहले-पहले अपने गुणातीत स्वरूप का अनुभव कर लेना चाहिये। गुणातीत होने से जरा, व्याधि, मृत्यु आदि सब प्रकार के दु:खों से मुक्ति हो जाती है और मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। फिर उसका पुनर्जन्म होता ही नहीं।
परिशिष्ट भाव—मनुष्य मात्र के भीतर यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी मरूँ नहीं। वह अमर रहना चाहता है। अमरता की इस इच्छा से सिद्ध होता है कि वास्तव में वह अमर है। अगर वह अमर न होता तो उसमें अमरता की इच्छा भी नहीं होती।
उदाहरणार्थ, भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न और जल) है, जिससे वह भूख-प्यास बुझ जाय। अगर अन्न-जल न होता तो भूख-प्यास भी नहीं लगती। अत: अमरता स्वत:सिद्ध है—'भूतग्राम: स एवायं ........' (गीता 8। 19)। परन्तु स्वरूप से अमर होते हुए भी जब मनुष्य अपने विवेक का तिरस्कार करके मरणधर्मा शरीर के साथ तादात्म्य मान लेता है अर्थात् 'मैं शरीर हूँ' ऐसा मान लेता है, तब उसमें मृत्यु का भय और अमरता की इच्छा पैदा हो जाती है।
जब वह अपने विवेक को महत्त्व देता है कि 'मैं शरीर नहीं हूँ; शरीर तो निरन्तर मृत्यु में रहता है और मैं स्वयं निरन्तर अमरता में रहता हूँ', तब उसको अपनी स्वत:सिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। शरीर के विकारों का, परिवर्तन का अनुभव स्वयं सदा एक रहते हुए ही करता है। अत: साधक को चाहिये कि वह विकारों को, परिवर्तन को मुख्यता न देकर अपने होनेपन को, अपनी अमरता को मुख्यता दे।

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